इमाम हुसैन की शहादत की याद में मनाते हैं मुहर्रम
शिया समुदाय के लोग मुहर्रम मनाते हैं। मुहर्रम पर इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत को याद किया जाता है। पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों के शहादत की याद में मोहर्रम मनाया जाता है। मुहर्रम से ही इस्लामिक नए साल कि शुरुआत होती है। मुहर्रम बकरीद के पर्व के 20 दिनों के बाद मनाया जाता है।
क्यों मनाते हैं मुहर्रम
61 वीं हिज़री तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी। यह जंग इंसानियत के लिए जुर्म के खिलाफ लड़ाई लड़ी गई थी। मुआविया नाम के शासक के निधन के बाद उनका राजपाट उनके बेटे यजीद को मिला। यजीद इस्लाम धर्म का खलीफा बनकर बैठ गया। यजीद जालिम बादशाह था, जो इंसानियत का दुश्मन था। यजीद को अल्लाह पर विश्वास नहीं था। वह अपने वर्चस्व को पूरे अरब में फैलाना चाहता था। उसके सामने पैगंबर मुहम्मद के खानदान का इकलौता चिराग इमाम हुसैन बड़ी चुनौती था। यजीद ने अत्याचार बढ़ा दिया तो बादशाह इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ मदीना से इराक के शहर कुफा जाने लगे। रास्ते में यजीद की फौज ने कर्बला के रेगिस्तान पर इमाम हुसैन के काफिले को रोक लिया। वह मुहर्रम का दिन था, जब हुसैन का काफिला कर्बला में ठहरा। वहां पानी का एकमात्र स्रोत फरात नदी थी, जिस पर यजीद की फौज ने 6 मुहर्रम से हुसैन के काफिले पर पानी पीने पर रोक लगा दी। इसके बाद भी इमाम हुसैन झुके नहीं, आखिर में जंग ही लड़नी पड़ी। अस्सी हजार की फौज के सामने हुसैन के 72 बहादुरों ने जंग लड़ी।उन्होंने अपने नाना और पिता के सिखाए हुए सदाचार, उच्च विचार, अध्यात्म और अल्लाह से बेपनाह मुहब्बत में प्यास, दर्द, भूख और पीड़ा सब पर विजय प्राप्त की। दसवें मुहर्रम के दिन तक हुसैन अपने भाइयों और अपने साथियों के शवों को दफनाते रहे। आखिर में उन्होंने खुद अकेले युद्ध किया फिर भी दुश्मन उन्हें मार नहीं सका। अस्र की नमाज के वक्त जब इमाम हुसैन खुदा का सजदा कर रहे थे, तब एक यजीदी ने धोखे से हुसैन को शहीद कर दिया। इमाम हुसैन तो मर कर भी जिंदा रहे. इस्लाम में उनकी मृत्यु अमर हो गई।